भारतीय कृषि में दलहनी फसलों का योगदान



         भारतीय कृषि में दलहनी फसलों का बहुत ही बड़ा योगदान रहा है । देश के हर क्षेत्र में कृषकों द्वारा अपनाये जाने वाले फसल चक्रों में दलहनी फसलों को सम्मिलित किया जाता है । अधिकांश फसलों के साथ मिश्रित तथा अन्त : फसलों ( Inter - cropping ) के रूप में भी दलहनी फसलों का अच्छी प्रकार से समावेश हो जाता है । इनकी जड़ों में ग्रन्थियाँ ( Nodules ) होती है । जिसमें राइजोबियम बैक्टीरिया होते हैं जो सीधे वायुमण्डल से नाइट्रोजन का स्थिरीकरण ( Fixation ) करते हैं जिनके फलस्वरूप दलहनी फसलों में अलग से नाइट्रोजन देने की आवश्यकता नहीं पड़ती है । फसलों की कटाई के बाद जड़े तथा पत्तियाँ खेत में रह जाती है । जिससे खेत की उर्वरा शक्ति बढ़ती है । 
     भारत में अधिकांश लोग शाकाहारी हैं । दालें ही उनके भोजन में प्रोटीन का एक मात्र स्त्रोत हैं । दालों में प्रोटीन की मात्रा 20 - 25 प्रतिशत तक होती है । सोयाबीन में लगभग 40 - 42 प्रतिशत तक प्रोटीन की मात्रा होती है ।
       दलहनी फसलें पशुओं को हरे चारे तथा दाने के रूप में खिलाने के भी काम में आती हैं । दलहनी फसलें फैलकर जमीन की सतह को ढक लेती है जिसके कारण वर्षा तथा हवा से भूमि का कटाव ( Soil erosion ) नहीं होने पाता है । दलहनी फसलें हरी खाद के रूप में उगायी जाती हैं । त इससे भूमि में जीवांश की मात्रा बढ़ती है तथा भूमि उपजाऊ तथा भुरभुरी बन जाती है।
                भारतीय कषि में दलहनी फसलों का समावेश नितान्त आवश्यक है । भूमि की उर्वरा शनि बनाये रखने के लिये यह आवश्यक है कि प्रत्येक फसल चक्र में वर्ष में एक बार दलहनी । फसल अवश्य उगायी जाये । ऐसा न करने पर कुछ समय बाद भूमि खराब हो सकती है । 

बीजोत्पादन ( Seed Production ) 

     मटर का शुद्ध प्रमाणित बीज उत्पादन करने के लिये निम्नलिखित बातों को ध्यान में । रखकर मटर की खेती करनी चाहिये -
     1 . बीज उत्पादन के लिये ऐसे खेत का चुनाव करना चाहिये जिसमें पिछले वर्ष मटर की फसल न उगायी गयी हो । खेत की मिट्टी दोमट तथा उपजाऊ हो जिसका पी० एच० मान लगभग 70 हो और उसमें जल निकास की समुचित व्यवस्था हो । 

    2 . बीज उत्पादन के लिये शुद्ध आधार बीज ( Foundation seed ) ही बोया जाये । 

    3 . मटर मुख्यतया स्वसेंचित ( Self pollinated ) फसल है । अतः मटर के बीज उत्पादन वाले खेत से मटर का अन्य खेत कम से कम 10 मीटर की पृथक्करण दूरी ( Isolation distance ) पर होना चाहिये । 

    4 . बीज को 45 सेमी की दूरी पर बनी कतारों में लगभग 5 सेमी० की गहराई पर बोया जाये । पौधे से पौधे की दूरी लगभग 5 - 8 सेमी० रखें । 

    5 . फसल की अच्छी प्रकार से देख - रेख करें । जब फसल 3 - 4 सप्ताह की हो जाये तो । गुड़ाई करके खरपतवारों को निकाल दें । फल आने के समय एक हल्की सिंचाई करें । अन्य सिंचाईयाँ आवश्यकता हो तो करें अन्यथा नहीं । हल्की सिंचाई ही करें । माहू तथा फली छेदक कीट के नियन्त्रण के लिये नुवान अथवा मैलाथियान का छिड़काव करें । पाउडरी मिलीडयू लिये घुलनशील गंधक अथवा कैराथेन का छिड़काव करें ।

   6 . फसल में 2 - 3 बार रोगिंग की क्रिया ध्यानपूर्वक की जाये। रोगिग के समय अवांछनीय पौधों ( Off type plants ) के साथ - साथ ऐसे सभी पौधों को भी निकाल देना । चाहिये जिसमें कोढ़ ( Mosaic ) झुलसा रोग आदि लगे हों । 

   7 . जब फसल में लगभग 90 प्रतिशत फलियों का रंग पीला - भूरा ( Brown ) हो जाये तो समझना चाहिये कि फसल पक गयी है । इसे खेत से काटकर , सुखाकर मंडाई करके दानों को । अलग कर लेना चाहिये । दानों को अच्छी प्रकार साफ करके तेज धूप में इतन सुखाना चाहिये ।  कि उनमें केवल  99% नमी ( Moisture content )  रह जाये । इनका सुरक्षित भण्डारण करें । एक हैक्टर से लगभग 15 - 20 क्विटल शुद्ध प्रमाणित बीज प्राप्त किया जा सकता है ।